सोमवार, 17 अगस्त 2015

घी त्यार

💐  घी-त्यार  💐
उत्तराखण्ड का एक लोक उत्सव
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आदिकाल से उत्तराखंड की सभ्यता जल, जंगल और जमीन से प्राप्त संसाधनों पर आधारित रही है। जिसकी पुष्टि यहां के लोक त्यौहार करते हैं, प्रकृति और कृषि का यहां के लोक जीवन में बहुत महत्व है, जिसे यहां की सभ्यता अपने लोक त्यौहारों के माध्यम से प्रदर्शित करती है। उत्तराखण्ड में हिन्दी मास की प्रत्येक १ गते यानी संक्रान्ति को लोक पर्व के रुप में मनाने का प्रचलन रहा है। भाद्रपद मास की संक्रान्ति को भी यहां घी-त्यार के रुप में मनाया जाता है।

यह त्यौहार भी हरेले की ही तरह ऋतु आधारित त्यौहार है, हरेला जहां बीजों को बोने और वर्षा ऋतु के आगमन का प्रतीक त्यौहार है, वहीं घी-त्यार अंकुरित हो चुकी फसलों में बालियों के लग जाने पर मनाया जाने वाला त्यौहार है। इस त्यौहार के समय पूर्व में बोई गई फसलों पर बालियां लहलहाना शुरु कर देती हैं। साथ ही स्थानीय फलों, यथा अखरोट आदि के फल भी तैयार होने शुरु हो जाते हैं। मान्यता है कि अखरोट का फल घी-त्यार के बाद ही खाया जाता है। इसके अतिरिक्त माल्टा, नारंगी आदि ऋतु फलों में भी फूल अब फलों का आकार लेने लगते हैं। अपनी ऋतु आधारित फसलों और फलों पर आई बालियों और फलों को देखकर आनन्दित होते हुये, उनके मूर्त रुप लेने की कामना हेतु यह त्यौहार मनाया जाता है।

यह त्यौहार मात्र कृषि से ही नहीं जुड़ा है, बल्कि पशुधन से भी जुड़ा हुआ है। कठिन परिस्थितियों में जिस प्रकार से पहाड़वासी अपने पशुओं को पाल-पोस कर उनकी सेवा करते हैं, वह वास्तव में मानव और पशुओं के बीच पारस्परिक संबंधों को विशालता प्रदान करता है। पहाड़ों में बरसात के मौसम में पर्याप्त मात्रा में हरी घास और चारा पशुओं को दिया जाता है।

गनेल (घोंघा)
जिसके फलस्वरुप पर्याप्त मात्रा में पशुधन (दूध-दही-घी) भी प्राप्त होता है, इस त्यौहार में उनसे प्राप्त पशुधन को भी पर्याप्त इस्तेमाल किया जाता है। इस दिन बेडू रोटि ( दाल की भरवां रोटियां) विशेष रुप से तैयार की जाती है और कटोरे में शुद्ध घी के साथ डुबोकर खाई जाती हैं, पिनालू (अरबी) की कोमल और बंद पत्तियों की सब्जी (गाबा)  भी इस दिन विशेष रुप से बनाई जाती है। घर में घी से विभिन्न पारम्परिक पकवान बनाये जाते हैं। किसी न किसी रुप में घी खाना अनिवार्य माना जाता है, ऐसी भी मान्यता है कि जो इस दिन घी नहीं खाता, वह अगले जन्म में गनेल (घोंघा) बनता है। गाय के घी को प्रसाद स्वरुप सिर पर रखा जाता है और छोटे बच्चों की तालू (सिर के मध्य) पर मला जाता है।

इसे घृत  संक्रान्ति या सिंह संक्रान्ति या ओलगी संकरात भी कहा जाता है, स्थानीय बोली में इसे ओलगिया भी कहते हैं। पहले चन्द राजवंश के समय अपनी कारीगरी तथा दस्तकारी की चीजों को दिखाकर शिल्पज्ञ लोग इस दिन पुरस्कार पाते थे तथा अन्य लोग भी साग-सब्जी, फल-फूल, दही-दूध, मिष्ठान्न तथा नाना प्रकार की उत्तमोत्तम चीज राज दरबार में ले जाते थे तथा मान्य पुरुषों की भेंट में भी ले जाते थे। यह ’ओलगे’ की प्रथा कहलाती थी। राजशाही खत्म होने के बाद भी गांव के पधानों के घर में यह सब चीजें ले जाने का प्रचलन था, लेकिन अब यह प्रथा विलुप्ति की कगार पर है

इस दिन का मुख्य व्यंजन बेडू की रोटी है। (जो उरद की दाल भिगो कर, पीस कर बनाई गई पिट्ठी से भरवाँ रोटी बनती है ) और घी में डुबोकर खाई जाती है। अरबी के बिना खिले पत्ते जिन्हें गाबा कहते हैं, उसकी सब्जी बनती है,छोटे बच्चों के सर पर घी लगाया जाता है। इस पर्व का मूल यद्यपि कृषि और पशुपालन से है तथापि राजाओं के समय में प्रजा अपने राजा को इस अवसर पर भेंट -उपहार दिया करती थी। अपनें खेतों की सब्जियाँ,मौसमी .फल ,घी आदि भेंट दी जाती थी। यही नहीं समाज के अन्य वर्ग शिल्पी ,दस्तकार, लोहार, बढई आदि भी अपने हस्त कौशल से निर्मित वस्तुएँ भेंट में देते थे, और धन धान्य के रूप में ईनाम पाते थे। अर्थात जो खेती और पशुपालन नहीं करते थे वे भी इस पर्व से जुड़े रहते थे। क्योंकि इन दोनों व्यवसायों में प्रयोग होनें वाले उपकरण यही वर्ग बनाते थे। गृह निर्माण हो या हल , कुदाली, दातुली जैसे उपकरण या बर्तन, बिणुली जैसे छोटे वाद्य यंत्र हों। इस भेंट देने की प्रथा को ओल्गी कहा जाता है। इसी कारण इस संक्रांति को ओलगिया संक्रांति भी कहते हैं। इसमें समाज के हर वर्ग को विशेष महत्व और सम्मान दिया जाता है, और सब मिलकर इस पर्व को मनाते हैं।

साथ में एक कविता भी
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घी संक्रात-त्यार

आच मेरा पाडा मा
च घी संक्रात
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

लोक पर्वसौर माघ मा सूर्य एक राशि
दुसर राशि जंदु तब संक्रात अंद
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

इनी बार संक्रात अंद
बारा मास बारा बार अंद
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

भादो मास मा कू संक्रात
पाडे मा  लागी घी संक्रात
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

बरखा क़ि  रूपाणी
आच लागी भात मा बालियाँ 
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

दूध दही -मक्खन खूब च
घॆयु की भैणी धार च
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

उरद की दाल
भरवा रोटा खाणा
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

गोबरा की फोफ्ली
थोफ्याली कूड़ा मा
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

छोट भूलूं मुडमा
घॆयु मलस दे
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

एक उत्तराखंडी

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
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