सोमवार, 14 दिसंबर 2015

माँ कोटगाड़ी पाँखू

न्याय की देवी माँ कोटगाड़ी मंदिर पाँखू

कोटगाड़ी माता का दरबार एक छोटे से मंदिर के रूप में उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद में प्रसिद्ध पर्यटक स्थल चौकोड़ी के करीब कोटमन्या तथा मुन्स्यारी मार्ग के एक पड़ाव थल से १७-१७ किमी की दूरी पर कोटगाड़ी नाम के एक गांव में स्थित है। स्थानीय लोगों के अनुसार कोटगाड़ी मूलत: जोशी जाति के ब्राह्मणों का गांव था। एक दौर में माता कोटगाड़ी यहां स्वयं प्रकट हुई थीं और यहीं रहती थीं, तथा बोलती भी थीं। लिहाजा यह स्थान माता का शक्तिपीठ है। माता ने स्वयं स्थानीय वाशिंदों को पास के दशौली गांव के पाठक जाति के एक ब्राह्मण को यहां बुलाया था। कोटगाड़ी गांव के जोशी लोग माता के आदेश पर दशौली के एक पाठक पंडित को यहां लेकर आए, और उन्हें माता के मंदिर के दूसरी ओर के ‘मदीगांव” नाम के गांव में बसाया। इन्हीं पाठक पंडित परिवार को ही मंदिर में पूजा-पाठ कराने का अधिकार दिया गया। वर्तमान में उन पाठक पंडित की करीब १० पीढ़ियों के उपरांत करीब २८ परिवार हो चुके हैं। इस तथ्य से मंदिर की प्राचीनता का अंदाजा लगाया जा सकता है। पाठक परिवार के लोग ही मंदिर में पूजा कराने का अधिकार रखते हैं। स्वयं के आचरण तथा साफ-सफाई व शुद्धता का बहुत कड़ाई से पालन करते हैं। परिवार में नई संतति अथवा किसी के मौत होने जैसी अशुद्धता की स्थिति में पास के घांजरी गांव के लोगों को अपनी जगह पूजा कराने की जिम्मेदारी देते हैं। लिहाजा एक परिवार के सदस्यों का करीब तीन से नौ माह में पूजा कराने का नंबर आता है। गांव के पास ही भंडारी ग्वल ज्यू का भी एक मंदिर है। कोटगाड़ी आने वाले लोगों के लिए भंडारी ग्वल ज्यू के मंदिर में भी शीष नवाना व खिचड़ी का प्रसाद चढ़ाना आवश्यक माना जाता है। कार्की लोग इस मंदिर के पुजारी होते हैं।माता के बारे में मान्यता है कि वह यहां आए बिना भी पुकार सुन लेती हैं, और कड़ा न्याय करती हैं। इसी कारण माता पर न केवल लोगों का अटूट विश्वास वरन उनसे भय भी रहता है। कुमाऊं मंडल में अनेक गांवों के लोगों ने कोटगाड़ी माता के नाम पर इस भय मिश्रित श्रद्धा का सदुपयोग वनों-पर्यावरण को बचाने के लिए भी किया है। गांवों के पास के वनों को माता को चढ़ा दिया गया है, जिसके बाद से कोई भी इन वनों से एक पौधा भी काटने की हिम्मत नहीं करता।

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

एक गावँ का आत्मकथन

एक गाँव का आत्म कथन
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आहा !भोर होगयी
और रवि की किरणों के चूमने से
होने लगा हूँ ऊष्मासित मैं
और मेरे जागते ही जागने लगे हैं -

बाँज बुराँस के बण /गाँव पार का गदेरा
गों की कोदयाड़ि /स्ट्याड़ि सार
गों मूडी का धारा /गों ऐंच का बाटा
पनघट और ऊखल भी

सब तो है मेरे पास
तुम्हारी विरासत संरक्षित
नहीं है तो बस -
पनघट की गोरी
दिलवरि हळ्या
अट्ठारह घण्टे अपनी कीली पर घूमती गुस्याण

पर मैं उतना दुखी भी नहीं हूँ जितना तुम यहाँ से भागते ही
पलायन पलायन चिल्लल्लाने लगते हो *
नगरों महानगरों कस्बों बाजारों में बैठ कर
क्यों पलायन चिल्लाते ही ???
क्या कर लोगे यहां आकर
न तुम अब खेत जोत पाओगे और न तुम्हारे बेटे हल पहचान पाएंगे
फिर खाओगे क्या ?हाँ चाय और दारु की दूकान जरूर चलाओगे
अरे छोड़ो ये पलायन पर भाषण देने का फैशन और
कभी कभी अपनी यादें ताजा करने आया करो
और आया करो ं अपने बच्चों के लिए नए अनुभव बटोरने पुराने सम्बन्ध सहेजने
गाँव जानने पहचानने समझने बूझने के लिए
ताकि मैं भी सुन सकूं उन्हें बतियातेहुए
उन्हें बात करते हुए ups की /माउस की /विंडोज की
एप्पल 6 s /ई बुक /गीगा /मेगा/नैनो /कार नहीं नैनो टेक्नालॉजी की हा हा हा क्यों ?

मुझे इस बात से भी ख़ुशी मिलती है कि -
दिल्ली मुम्बई दुबई की सड़कों पर दौड़ते हुए भी तुम
गीत तो नरेंद्र सिंह नेगी के ही सुनते हो

और मैं खुश होता हूँ ये देख कर भी
कि - फाँस खाने वाली ,गाड पड़ने वाली
मेरी कई बहू बेटियाँ
कि - फर्राटे भरने लगी हैं अपनी अपनी कारों में
दिलबरी हल्या का बेटा आज डी एम् बन कर
बाप की उन कही अनकही पीड़ाओं को
मिटाने की कोशिस कर रहा है
कि - रो - रो कर बेसुरे बेसुध गू - मूत में लिपटे मेरे बच्चे
भी आज देसियों के बच्चों की बराबरी कर की बोर्ड से लगे हैं खेलने
और तो और अरे !जिस बाप को अपने अपने बचपन में ही
पहाड़ से आयात किया जाता था होटल में भांडे बर्तन माँजने के लिए
सुना है आज उसने उन्हीं को नौकर रख लिया है अपने यहाँ

हा हा हा हा हा हा हा मैं खुश हूँ

B positive yaar

तुम्हारे इन्तजार में
पर्वतों की गोद में बसा मैं हूँ

@ तुम्हारा गाँव @
(उमा भट्ट)

मंगलवार, 18 अगस्त 2015

धौलीनाग मंदिर

श्री नाग पंचमी के शुभ अवसर पर आपको लिए चलते हैं बागेश्वर जिले के विजयपुर नामक ग्राम में  स्थित श्री धौलीनाग मंदिर ।
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उत्तराखंड  की पवित्र
भूमि में आज भी ऐसे अनेक गुप्त एवं रहस्यमय देवस्थल हैं, जहां वास्तव में साक्षात देवताओं की उपस्थिति की अनुभूति होती
है। दुर्भाग्य की बात यह है कि ऐसे दुर्लभ देवस्थलों का राज्य के
पर्यटन मानचित्र में आज तक कोई नामो-निशान नहीें है, जबकि
इन दुर्लभ देवस्थलों पर गहन शोध की आवश्यकता थी। इन्हीं गुप्त
देवस्थलों में से ऐक देवस्थल है ‘धौली नाग’।

नागाधिराज के नाम
से जाने जाने वाले इन धौली नाग देवता को धवलनाग या
सफेदनाग के नाम से भी जाना जाता है।

धौलीनाग देवता का मन्दिर कुमाऊं मण्डल के बागेश्वर जनपद
अन्तर्गत विजयपुर नामक स्थान से मात्र डेढ़ किमी. की दूरी पर
ऊंचाई पर स्थित है। यहां के स्थानीय लोग इस नाग देवता को
अपने आराध्य देव के रूप में पूजते हैं। क्षेत्रभर के लोगों में धौलीनाग
देवता के प्रति गहरी आस्था है और विश्वास तो उनके दिलों में
जैसे कूट-कूट कर भरा है।
मंदिर के आस्थावान भक्त गोपाल धामी के अनुसार धौलीनाग
देवता के इस मन्दिर की स्थापना लगभग 400 वर्ष पूर्व की गयी
थी। उससे पहले धौलीनाग देवता यहां स्थित एक बांज के एक
विशालकाय पेड़ पर निवास करते थे, जो आज भी यहां मौजूद है।
यहां के स्थानीय लोगों का कहना है कि एक बार रात्रि के
समय इस क्षेत्र के जंगल में अचानक भयंकर आग लग गयी। तब बांज
के विशाल पेड़ पर विराजित धौलीनाग देवता ने ग्रामवासियों
को आवाज लगा कर बताया कि जंगल में आग लग गयी, इसे बुझाने
के लिए आओ, लेकिन कहा जाता है कि वह दिव्य आवाज
किसी को नहीं सुनाई दी। देवता के बार-बार आवाज लगाये
जाने पर सहसा वह आवाज क्षेत्र में ही निवास करने वाले
अनुसूचित जाति के ‘भूल’ लोगों ने सुनी तो वे 22 हाथ लम्बी
मशाल जलाकर रात्रि में ही आग बुझाने को निकल पड़े। देवता
के जयकारे की आवाज जब यहीं के धपोला लोगों ने सुनी तो वे
घरों से बाहर निकले और भूल लोगों से सारा वृतान्त सुनकर वे भी
जलती मशाल लेकर उनके साथ चल दिये। देखते ही देखते चन्दोला
वंशज के लोग भी मशाल हाथ में लेकर निकल पड़े और छुरमल देवता
के मंदिर में सभी एकत्र हो गये। वहां से एक साथ जंगल की आग
बुझाने निकले। मशाल लेकर चलने की परम्परा आज भी विभिन्न
मेलों के अवसर पर चली आ रही है।
साल में तीन बार यहां भव्य मेलों का आयोजन होता है, जिसमें
धपोला व भूल लोग मिलकर बाईस हाथ लम्बी जलती मशाल
लाते हैं। यह भव्य मंदिर हिमालय की तलहटी में चारों ओर बांज,
बुरांश, चीड़, काफल, देवदार आदि के वनों से आच्छादित है। इस
क्षेत्र में अनेक जाति के क्षत्रिय, ब्राह्मण एवं अनुसूचित जाति
के लोग निवास करते हैं। चन्दोला, धपोला, धामी, राणा, पन्त,
पाण्डे, काण्डपाल, कम्र्याल, भूल आदि मिलाकर लगभग डेढ़
हजार परिवार धौली नाग देवता को अपना आराध्य देव मानते
हैं। वर्ष में ऋषि पंचमी, नाग पंचमी और प्रत्येक नवरात्रि की
पंचमी की रात्रि को यहां भव्य मेले लगते हैं, जिनमें हजारों लोग
भाग लेते हैं। परम्परा के अनुसार इस मंदिर में विधि-विधान से
पूजा-अर्चना होती है। यहां के पुजारी धामी वंशज होते हैं।
वर्तमान में अमर सिंह धामी व गुमान सिंह धामी इस मंदिर में
पुजारी का दायित्व संभाले हैं।

सुविचार


रोज   तारीख   बदलती.  है,
रोज.  दिन.  बदलते.   हैं....
रोज.  अपनी.  उमर.   भी बदलती.  है.....
रोज.  समय.  भी    बदलता. है...
हमारे   नजरिये.  भी.  वक्त.  के साथ.  बदलते.  हैं.....
बस   एक.  ही.  चीज.  है.  जो नहीं.   बदलती...
और  वो  हैं  "हम खुद"....

और  बस   सी.  वजह  से  हमें लगता   है.  कि.  अब  "जमाना" बदल   गया.  है........

किसी  शायर  ने  खूब  कहा  है,,

रहने   दे   आसमा.  ज़मीन   कि तलाश.  ना   कर,,
सबकुछ।  यही।  है,  कही  और  तलाश   ना   कर.,

हर  आरज़ू   पूरी  हो,  तो   जीने का।  क्या।  मज़ा,,,
जीने  के  लिए   बस।  एक खूबसूरत   वजह।  कि   तलाश कर,,,

ना  तुम  दूर  जाना  ना  हम  दूर जायेंगे,,
अपने   अपने   हिस्से कि। "दोस्ती"   निभाएंगे,,,

बहुत  अच्छा   लगेगा    ज़िन्दगी का   ये   सफ़र,,,
आप  वहा  से  याद   करना, हम यहाँ   से   मुस्कुराएंगे,,,

क्या   भरोसा   है.  जिंदगी   का,
इंसान.  बुलबुला.  है   पानी  का,

जी  रहे  है  कपडे  बदल  बदल कर,,
एक  दिन  एक  "कपडे"  में  ले जायेंगे  कंधे  बदल  बदल  कर,,

सोमवार, 17 अगस्त 2015

घी त्यार

💐  घी-त्यार  💐
उत्तराखण्ड का एक लोक उत्सव
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आदिकाल से उत्तराखंड की सभ्यता जल, जंगल और जमीन से प्राप्त संसाधनों पर आधारित रही है। जिसकी पुष्टि यहां के लोक त्यौहार करते हैं, प्रकृति और कृषि का यहां के लोक जीवन में बहुत महत्व है, जिसे यहां की सभ्यता अपने लोक त्यौहारों के माध्यम से प्रदर्शित करती है। उत्तराखण्ड में हिन्दी मास की प्रत्येक १ गते यानी संक्रान्ति को लोक पर्व के रुप में मनाने का प्रचलन रहा है। भाद्रपद मास की संक्रान्ति को भी यहां घी-त्यार के रुप में मनाया जाता है।

यह त्यौहार भी हरेले की ही तरह ऋतु आधारित त्यौहार है, हरेला जहां बीजों को बोने और वर्षा ऋतु के आगमन का प्रतीक त्यौहार है, वहीं घी-त्यार अंकुरित हो चुकी फसलों में बालियों के लग जाने पर मनाया जाने वाला त्यौहार है। इस त्यौहार के समय पूर्व में बोई गई फसलों पर बालियां लहलहाना शुरु कर देती हैं। साथ ही स्थानीय फलों, यथा अखरोट आदि के फल भी तैयार होने शुरु हो जाते हैं। मान्यता है कि अखरोट का फल घी-त्यार के बाद ही खाया जाता है। इसके अतिरिक्त माल्टा, नारंगी आदि ऋतु फलों में भी फूल अब फलों का आकार लेने लगते हैं। अपनी ऋतु आधारित फसलों और फलों पर आई बालियों और फलों को देखकर आनन्दित होते हुये, उनके मूर्त रुप लेने की कामना हेतु यह त्यौहार मनाया जाता है।

यह त्यौहार मात्र कृषि से ही नहीं जुड़ा है, बल्कि पशुधन से भी जुड़ा हुआ है। कठिन परिस्थितियों में जिस प्रकार से पहाड़वासी अपने पशुओं को पाल-पोस कर उनकी सेवा करते हैं, वह वास्तव में मानव और पशुओं के बीच पारस्परिक संबंधों को विशालता प्रदान करता है। पहाड़ों में बरसात के मौसम में पर्याप्त मात्रा में हरी घास और चारा पशुओं को दिया जाता है।

गनेल (घोंघा)
जिसके फलस्वरुप पर्याप्त मात्रा में पशुधन (दूध-दही-घी) भी प्राप्त होता है, इस त्यौहार में उनसे प्राप्त पशुधन को भी पर्याप्त इस्तेमाल किया जाता है। इस दिन बेडू रोटि ( दाल की भरवां रोटियां) विशेष रुप से तैयार की जाती है और कटोरे में शुद्ध घी के साथ डुबोकर खाई जाती हैं, पिनालू (अरबी) की कोमल और बंद पत्तियों की सब्जी (गाबा)  भी इस दिन विशेष रुप से बनाई जाती है। घर में घी से विभिन्न पारम्परिक पकवान बनाये जाते हैं। किसी न किसी रुप में घी खाना अनिवार्य माना जाता है, ऐसी भी मान्यता है कि जो इस दिन घी नहीं खाता, वह अगले जन्म में गनेल (घोंघा) बनता है। गाय के घी को प्रसाद स्वरुप सिर पर रखा जाता है और छोटे बच्चों की तालू (सिर के मध्य) पर मला जाता है।

इसे घृत  संक्रान्ति या सिंह संक्रान्ति या ओलगी संकरात भी कहा जाता है, स्थानीय बोली में इसे ओलगिया भी कहते हैं। पहले चन्द राजवंश के समय अपनी कारीगरी तथा दस्तकारी की चीजों को दिखाकर शिल्पज्ञ लोग इस दिन पुरस्कार पाते थे तथा अन्य लोग भी साग-सब्जी, फल-फूल, दही-दूध, मिष्ठान्न तथा नाना प्रकार की उत्तमोत्तम चीज राज दरबार में ले जाते थे तथा मान्य पुरुषों की भेंट में भी ले जाते थे। यह ’ओलगे’ की प्रथा कहलाती थी। राजशाही खत्म होने के बाद भी गांव के पधानों के घर में यह सब चीजें ले जाने का प्रचलन था, लेकिन अब यह प्रथा विलुप्ति की कगार पर है

इस दिन का मुख्य व्यंजन बेडू की रोटी है। (जो उरद की दाल भिगो कर, पीस कर बनाई गई पिट्ठी से भरवाँ रोटी बनती है ) और घी में डुबोकर खाई जाती है। अरबी के बिना खिले पत्ते जिन्हें गाबा कहते हैं, उसकी सब्जी बनती है,छोटे बच्चों के सर पर घी लगाया जाता है। इस पर्व का मूल यद्यपि कृषि और पशुपालन से है तथापि राजाओं के समय में प्रजा अपने राजा को इस अवसर पर भेंट -उपहार दिया करती थी। अपनें खेतों की सब्जियाँ,मौसमी .फल ,घी आदि भेंट दी जाती थी। यही नहीं समाज के अन्य वर्ग शिल्पी ,दस्तकार, लोहार, बढई आदि भी अपने हस्त कौशल से निर्मित वस्तुएँ भेंट में देते थे, और धन धान्य के रूप में ईनाम पाते थे। अर्थात जो खेती और पशुपालन नहीं करते थे वे भी इस पर्व से जुड़े रहते थे। क्योंकि इन दोनों व्यवसायों में प्रयोग होनें वाले उपकरण यही वर्ग बनाते थे। गृह निर्माण हो या हल , कुदाली, दातुली जैसे उपकरण या बर्तन, बिणुली जैसे छोटे वाद्य यंत्र हों। इस भेंट देने की प्रथा को ओल्गी कहा जाता है। इसी कारण इस संक्रांति को ओलगिया संक्रांति भी कहते हैं। इसमें समाज के हर वर्ग को विशेष महत्व और सम्मान दिया जाता है, और सब मिलकर इस पर्व को मनाते हैं।

साथ में एक कविता भी
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घी संक्रात-त्यार

आच मेरा पाडा मा
च घी संक्रात
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

लोक पर्वसौर माघ मा सूर्य एक राशि
दुसर राशि जंदु तब संक्रात अंद
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

इनी बार संक्रात अंद
बारा मास बारा बार अंद
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

भादो मास मा कू संक्रात
पाडे मा  लागी घी संक्रात
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

बरखा क़ि  रूपाणी
आच लागी भात मा बालियाँ 
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

दूध दही -मक्खन खूब च
घॆयु की भैणी धार च
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

उरद की दाल
भरवा रोटा खाणा
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

गोबरा की फोफ्ली
थोफ्याली कूड़ा मा
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

छोट भूलूं मुडमा
घॆयु मलस दे
ये जावा दीदा
घॆयु खाणु कुन 

एक उत्तराखंडी

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
में पूर्व प्रकाशित -सर्वाधिकार सुरक्षित

मंगलवार, 30 जून 2015

कस्तूरी मृग




 कस्तूरीमृग

कस्तूरीमृग नामक पशु मृगों के अंग्युलेटा (Ungulata) कुल (शफि कुल, खुरवाले जंतुओं का कुल) की मॉस्कस मॉस्किफ़रस (Moschus Moschiferus) नामक प्रजाति का जुगाली करनेवाला शृंगरहित चौपाया है। प्राय: हिमालय पर्वत के ,४०० से ३,६०० मीटर तक की ऊँचाइयों पर तिब्बत, नेपाल, हिन्दचीन और साइबेरिया, कोरिया, कांसू इत्यादि के पहाड़ी स्थलों में पाया जाता है। शारीरिक परिमाण की दृष्टि से यह मृग अफ्रीका के डिक-डिक नामक मृग की तरह बहुत छोटा होता है। प्राय: इसका शरीर पिछले पुट्ठे तक ५०० से ७०० मिलीमीटर (२० से ३० इंच) ऊँचा और नाक से लेकर पिछले पुट्ठों तक ७५० से ९५० मिलीमीटर लंबा होता है। इसकी पूँछ लगभग बालविहीन, नाममात्र को ही (लगभग ४० मिलीमीटर की) रहती है। इस जाति की मृगियों की पूँछ पर घने बाल पाए जाते हैं। जुगाली करनेवाले चौड़ा दाँत (इनसिज़र, incisor) नहीं रहता। केवल चबाने में सहायक दाँत (चीभड़ और चौभड़ के पूर्ववाले दाँत) होते हैं। इन मृगों के ६० से ७५ मिलीमीटर लंबे दोनों सुवे दाँत (कैनाइन, canine) ऊपर से ठुड्ढ़ी के बाहर तक निकले रहते हैं। इसके अंगोपांग लंबे और पतले होते हैं। पिछली टाँगें अगली टाँगों से अधिक लंबी होती हैं। इसके खुरों और नखों की बनावट इतनी छोटी, नुकीली और विशेष ढंग की होती है कि बड़ी फुर्ती से भागते समय भी इसकी चारों टाँगें चट्टानों के छोटे-छोटे किनारों पर टिक सकती हैं। नीचे से इसके खुर पोले होते हैं। इसी से पहाड़ों पर गिरनेवाली रुई जैसे हल्के हिम में भी ये नहीं धँसते और कड़ी से कड़ी बर्फ पर भी नहीं फिसलते। इसकी एक-एक कुदान १५ से २० मीटर तक लंबी होती है। इसके कान लंबे और गोलाकार होते हैं तथा इसकी श्रवणशक्ति बहुत तीक्ष्ण हाती है। इसके शरीर का रंग विविध प्रकार से बदलता रहता है। पेट और कमर के निचले भाग लगभग सफेद ही होते हैं और बाकी शरीर कत्थई भूरे रंग का होता है। कभी-कभी शरीर का ऊपरी सुनहरी झलक लिए ललछौंह, हल्का पीला या नारंगी रंग का भी पाया जाता है। बहुधा इन मृगों की कमर और पीठ पर रंगीन धब्बे रहते हैं। अल्पवयस्कों में धब्बे अधिक पाए जाते हैं। इनके शरीर पर खूब घने बाल रहते हैं। बालों का निचला आधा भाग सफेद होता है। बाल सीधे और कठोर होते हुए भी स्पर्श करने में बहुत मुलायम होते हैं। बालों की लंबाई ७६ मिलीमीटर की लगभग होती है।
कस्तूरीमृग पहाड़ी जंगलों की चट्टानों के दर्रों और खोहों में रहता है। साधारणतया यह अपने निवासस्थान को कड़े शीतकाल में भी नहीं छोड़ता। चरने के लिए यह मृग दूर से दूर जाकर भी अंत में अपनी रहने की गुहा में लौट आता है। आराम से लेटने के लिए यह मिट्टी में एक गड्ढा सा बना लेता है। घास पात, फूल पत्ती और जड़ी बूटियाँ ही इसका मुख्य आहार हैं। ये ऋतुकाल के अतिरिक्त कभी भी इकट्ठे नहीं पाए जाते और इन्हें एकांतसेवी पशु ही समझना चाहिए। कस्तूरीमृग के आर्थिक महत्व का कारण उसके शरीर पर सटा कस्तूरी का नाफा ही उसके लिए मृत्यु का दूत बन जाता है।

आमा की बात






आछत फरकैण रस्म व मंगल गीतों का है महत्व
कुमाऊं की वैवाहिक परंपराओं में अक्षत(चावल) के द्वारा स्वागत अथवा पूजन का भी अपना एक विशेष महत्व है। इसे कुमाऊं में अनेक स्थानों पर कुमाऊंनी भाषा में (आछत फरकैण) अथवा अक्षत के द्वारा मंगलमयी जीवन के लिए भी कामना की जाती है। विवाह समारोह में आछत फरकैण एक महत्वपूर्ण रस्म है। इसके लिए वर और वधू पक्ष के परिवार की महिलाओं को विशेष रूप से इसके लिए आमंत्रित किया जाता है। वे पारंपरिक परिधानों रंगवाली पिछौड़ा व आभूषण पहनकर इस कार्य को करती हैं। दूल्हे के घर में बारात प्रस्थान के समय भी इन महिलाओं द्वारा दूल्हे का अक्षतों से स्वागत किया जाता है। दूल्हे के घर में बरात पहुंचने पर वर पक्ष की महिलाएं जो आछत फरकैण के लिए आमंत्रित होती हैं। वे दूल्हा और दुल्हन का घर में प्रवेश से पहले आंगन में यह परंपरा अदा की जाती है। अक्षत को शुद्ध, पवित्रता और सच्चाई का भी प्रतीक माना जाता है। शादियों से पूर्व में मंगल गीत गाने के लिए गांव की विशेष दो महिलाएं जो गितार कहलाती थी, विवाह में मंगल गीत गाती थीं। पर अब यह परंपरा भी आधुनिकता की भेंट चढ़ती जा रही है। मंगलगीत में देवताओं का आह्वान और मंगलमयी जीवन की कामना की जाती है। 

 -भुवन बिष्ट, मौना रानीखेत, अल्मोड़ा